इंदौर के महू नामक स्थान पर 14 अप्रैल 1891 को जन्मे बाबा साहेब के पिता फ़ौज में सूबेदार थे। बाबासाहेब बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। बचपन से ही आपको पढ़ने लिखने का बड़ा शौक था। वे अपना ज्यादातर समय किताबों के साथ ही बिताते थे। बचपन से ही उन्हें एक बात कचोटती थी और वो थी देश में व्याप्त छुआ-छूत की बीमारी। लेकिन उन्होंने इसे कभी भी अपने रास्ते की रुकावट नहीं बनने दिया बल्कि हर बाधा को साधन की तरह इस्तेमाल किया और कामयाबी हासिल की।

बाबासाहेब भीम राव अम्बेडकर को उनके जीवन में जिस काम के लिए रोका जाता था, उसे वो जरूर सिद्ध करके दिखाते थे। जब उन्हें किताबें पढ़ने से रोका गया, तब उन्होंने किताबों से ही दोस्ती कर ली और ऐसा ज्ञान अर्जित किया कि एक दिन भारत के पहले कानून मंत्री बन गए। उन्हें विचारों से रोका गया, तो वे खुद विचारक हो गए। उन्हें धर्म के विधान में पड़ने से रोका गया तो एक दिन उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश का संविधान लिख डाला।

बताया जाता है कि एक ब्राह्मण शिक्षक भीमराव को हमेशा सराहा करते थे। उन्हीं के कहने पर भीमराव ने अपने नाम से सकपाल हटा अम्बेडकर लगा लिया था।

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बाबासाहेब का सम्पूर्ण बचपन संघर्षो से भरा हुआ था, जिसका प्रमुख कारण था उनका एक ऐसी जाति में जन्म लेना जिसे समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। जिसके चलते उन्हें अपने जीवन काल और ख़ास तौर से बचपन में अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आज हम आपको बाबासाहेब के बचपन के उन संघर्षो के बारे में बताएँगे, जिनका सामना करते-करते उन्होंने अपने सभी लक्ष्यों को पाया और एक दिन देश के सविंधान निर्माता बने।

“जीवन  लम्बा  होने  की  बजाये  महान  होना  चाहिए।”

वैसे तो बाबासाहेब बचपन से ही कठिन परिश्रमी थे। रोजाना 18 घंटे पढ़ना उनके लिए सहज बात थी। कठिनाइयाँ उनका मार्ग कभी नहीं रोक पातीं थीं, वे जो भी सोंचते थे उसे करके ही रहते थे।

बाबासाहेब महार जाति के थे, उस ज़माने में उनकी जाति में बच्चों को पढ़ने-लिखने की अनुमति नहीं हुआ करती थी। लेकिन उनकी तेज बुद्धि को देखते हुए उनका दाखिला एक सरकारी स्कूल में करवा दिया गया था। जब अम्बेडकर अपने स्कूल में पढ़ने जाते तो उन्हें सदैव सभी सहपाठियों से दूर रखा जाता था, क्योंकि उस स्कूल में केवल उनके अलावा अन्य सभी विद्यार्थी ऊँची जाति से आते थे। कक्षा के अन्य विद्यार्थी उनके संपर्क में न आएं, इसके लिए उन्हें कक्षा के बाहर ही बैठ कर पढना पड़ता था।

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स्कूल के बच्चे भी उनके साथ खेलना पसंद नहीं करते थे, बाबासाहेब मैदान के एक किनारे पर बैठ कर दूसरे बच्चों को खेलते हुए देखते रहते थे। बाबासाहेब का बच्चों के साथ खेलने का मन तो बहुत करता था, लेकिन छुआ-छूत की बीमारी इस कदर फैली थी कि ऊँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों के अपने आस पास भी घूमने नहीं देते थे। यही वजह है कि स्कूल के अध्यापक भी आंबेडकर से दूरी बना कर चलते थे। यहाँ तक कि अध्यापक उनकी अभ्यास-पुस्तिका तक नहीं छूते थे। स्कूल के अध्यापकों ने बाबासाहेब को संस्कृत पढ़ाना भी स्वीकार नहीं किया। इस वजह से उन्हें  विवश होकर फारसी की शिक्षा हासिल करनी पड़ी।

बाबासाहेब को अपने स्कूल में दिन-भर प्यासा रहना पड़ता था, क्योंकि उन्हें पानी के बर्तनों को छूने की या हाथ लगाने की अनुमति नहीं थी, जबकि बाकि छात्र जब चाहे तब नल चला कर पानी पी सकते थे। उन्हें स्कूल में सिर्फ तब पानी मिलता था, जब विद्यालय का चपरासी वहां उपस्थित हो, यदि वह नहीं होता था तो कोई और उन्हें नल चला कर पानी नहीं देता था। उन्हें दिन भर प्यासा ही रहना पढ़ता था। उन्होंने अपने कई लेखों में इस बात का जिक्र भी किया था। उन्होंने अपनी इस घटना को अंग्रेजी के एक वाक्य में कुछ इस तरह लिखा है – “No Peon, No Water”

बाबासाहेब को अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान कई ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ा जो एक बालक के लिए अत्यंत कठिन है। लेकिन फिर भी उन्होंने हर मुसीबत को अपनी सफलता की सीढी बनाकर वो कर के दिखाया जो उस समय एक अछूत परिवार में जन्मे बालक के लिए लगभग असंभव था।

बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर के संघर्षों से हमें यही सीख मिलती है कि मार्ग में जो भी रूकावट या मुसीबत आये उसका डट कर सामना करना चाहिए और उसे साधन बनाकर आगे बढ़ते रहना चाहिए, सफलता आपके कदम चूमेगी।